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बाल श्रम: बेगार की चक्की में पिसता बचपन

बाल श्रम: बेगार की चक्की में पिसता बचपन

बाल श्रम एक ऐसा अभिशाप है जो बच्चों से शिक्षा, स्वतंत्रता, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताएं छीन लेता है। जो न केवल उस बालक बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की उन्नति के मार्ग में बड़ी बाधा जान पड़ता है।

विस्तार

किसी भी देश के उज्ज्वल भविष्य का निर्माण उस देश के युवा करते हैं। ये वो स्तंभ होते हैं, जिन पर सशक्त देश की बुनियाद रखी जाती है। हमारे लिए यह गौरव की बात है कि भारत युवाओं का देश है। यदि हमने बचपन और युवावस्था में सही तालमेल बैठा लिया, तो निश्चित तौर पर आने वाले समय में वैश्विक सफलता की कमान भारत के हाथों में होगी। यद्यपि विडम्बना है कि देश की शक्ति का एक अहम हिस्सा जो बच्चों द्वारा निर्मित होता है, बालपन में बाल श्रमिक के रूप में उनकी शक्ति और सामर्थ्य को अनावश्यक रूप से नष्ट कर दिया जा रहा है।
बाल श्रम एक ऐसा अभिशाप है जो बच्चों से शिक्षा, स्वतंत्रता, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताएं छीन लेता है। जो न केवल उस बालक बल्कि संपूर्ण राष्ट्र की उन्नति के मार्ग में बड़ी बाधा जान पड़ता है।

आजादी के 75 साल पूरे हो चुके हैं। एक ओर हम विश्व की पांचवी उभरती हुई अर्थव्यवस्था बनने का जश्न मना रहे हैं वही दूसरी ओर लाखों बच्चे आज भी मजदूर बनने पर मजबूर हो रहे हैं।

लोगों की सामाजिक आर्थिक स्तर में दिन-प्रतिदिन होता बदलाव अर्थव्यवस्था के विकास की कहानी लिख रहा है लेकिन आंकड़ों पर नजर डालें तो देश में लगभग एक करोड़ से भी अधिक बाल श्रमिक जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से दूर हैं। बाल मजदूरी के कारणों पर समाज और सरकार दोनों को चिंतन करने की आवश्यकता है।

यद्यपि बाल श्रम केवल भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व की समस्या है इसीलिए संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1979 में बाल श्रम के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया जिस को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने बाल श्रम निषेध एवं विनियमन कानून 1986 बनाया।
इस कानून के अनुसार बाल श्रम का अर्थ है, वह श्रम जो 14 वर्ष की एवं उससे कम उम्र के बच्चे से उसकी इच्छा के विरुद्ध लिया जाए। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने बाल श्रम पर अपनी एक रिपोर्ट में बाल श्रमिकों को परिभाषित किया है उसके अनुसार, यह वह किशोर नहीं हैं जो दिन में कुछ घंटे खेल और पढ़ाई से निकालकर अपने खर्च के लिए काम करते हैं। यह वे बच्चे भी नहीं हैं जो पारिवारिक जमीन पर खेती में मदद करते हैं या घरेलू कार्य में मदद करते हैं बल्कि यह वह मासूम हैं जो वयस्कों की जिंदगी बिताने को मजबूर हैं।

निश्चित ही आज के युवा तरक्की के कई पायदानों को पार कर चुके हैं, कई नए रिकॉर्ड्स बनाने में संलग्न हैं परंतु विडंबना है कि बाल श्रम बेगार की चक्की में बचपन को पीसता नजर आ रहा है। बाल श्रमिकों के लिए आज भी शोषण और अन्याय की कई खतरनाक कहानियां दोहराई जा रही हैं। उनसे वह काम लिए जा रहे हैं, जो उनके स्वास्थ्य और स्वतंत्रता के लिए खतरा उत्पन्न कर रहे हैं। उनको ऐसे उद्योगों में झोंका जा रहा है, जिनसे उनके जीवन को खतरा है।

हालांकि पिछले कुछ सालों से बाल श्रमिकों की दर में कमी देखी गई है। समाज की जागरूकता और सरकार के द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न अभियानों एवं योजनाओं का प्रभाव समाज में अपना प्रभाव छोड़ रहा है। इसके बावजूद बच्चों को अभी भी बहुत से कठिन कार्यों में लगाया जा रहा है, जैसे बंधुआ मजदूरी, बाल सैनिक (चाइल्ड सोल्जर), बीड़ी बनाने, कालीन बनाने, चूड़ी, शीशा, ताला, पीतल, पटाखा ईंट भट्टों पर काम करना, गलीचा बुनना, कपड़े तैयार करना, घरेलू कामकाज, खानपान सेवाएं (जैसे चाय की दुकान पर) खेती बाड़ी, मछली पालन और खानों में काम करना आदि।

इतना ही नहीं बल्कि इन जोखिम भरे कार्यों में उनके कार्य करने के घंटे भी तय नहीं किए जाते और न ही कोई पारिश्रमिक तय किया जाता है। इसके अलावा बच्चों का और भी कई तरह के शोषण का शिकार होने का खतरा बना रहता है, जिसमें यौन उत्पीड़न तथा ऑनलाइन एवं अन्य चाइल्ड पोर्नोग्राफी शामिल है।

2011 की जनगणना के आंकड़ों की मानें तो भारत में 8.4 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते और 78 लाख बच्चे ऐसे हैं जिन्हें मजबूरन बाल मजदूरी करना पड़ती है।

एक रिपोर्ट के अनुसार 2021 में कोरोना काल में दुनिया भर में 160 मिलियन बच्चे बाल श्रम की चपेट में आए थे। आई.एल.ओ. की रिपोर्ट के अनुसार 2016 के बाद से 5 से 17 वर्ष के मध्य खतरनाक काम करने वाले बच्चों की संख्या लगभग 65 लाख से बढ़कर 7.9 करोड़ हो गई है। बाल श्रम में 5 से 11 वर्ष के बीच बच्चों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है।

UNICEF के अनुसार दुनिया भर के कुल बाल मजदूरों में अकेले भारत की हिस्सेदारी 12 प्रतिशत की है। गैरसरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में लगभग 5 करोड़ बाल मजदूर हैं। बाल श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनियम 2016 के अनुसार- बाल श्रम अर्थात 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को उनके परिवार द्वारा चलाए जा रहे प्रतिष्ठानों को छोड़कर सभी प्रतिष्ठानों और उद्यमों में उनके रोजगार पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस अधिनियम के अनुसार बाल श्रम अब एक संज्ञेय अपराध है, जिसके लिए 2 वर्ष तक की जेल की सजा का प्रावधान भी है।

बाल श्रम गरीबी, बेरोजगारी और कम मजदूरी का एक दुष्चक्र है। जिससे निकलना बच्चों के लिए बेहद मुश्किल हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे उनके लिए सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक विकास के द्वार बंद हो जाते हैं। प्रायः ऐसी संख्या बहुत कम ही है जब बाल श्रम से जूझकर कोई व्यक्ति तरक्की की इबारत लिखने में सफल हो पाता है। बचपन को बाल श्रम की चक्की में पीसने से बचाने के लिए हमें मौजूदा दौर में किए जा रहे प्रयासों से भी ज्यादा प्रयास करने होंगे।

हमें ऐसे प्रयास करने होंगे जिनसे बचपन के सामर्थ्य और शक्ति को संतुलित दिशा दी जा सके। हमें भारत को आर्थिक दृष्टि में सर्वोत्तम लाने के लिए भविष्य की युवा शक्ति को संरक्षित करना होगा। लोगों के परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने और बच्चों को काम पर न भेजने के लिए सरकार को सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों और नकद हस्तांतरण की दिशा में ठोस प्रयास करने होंगे।

साथ ही शैक्षिक संस्थानों और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की जरूरत एवं शिक्षा की प्रासंगिकता को सुनिश्चित करने के लिए शैक्षिक बुनियादी ढांचे में बदलाव की जरूरत है। तथा बाल श्रम से निपटने के मौजूदा भारतीय कानूनों में एकरूपता लाने की भी जरूरत है। निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा को और प्रभावी बनाना होगा। सार्वजनिक हित और बच्चों के लिए बड़े पैमाने पर जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। बाल मजदूरी को रोकने के लिए माता – पिता को जागरूक और शिक्षित करने की भी जरूरत है।

व्यक्तिगत स्तर पर भी बाल श्रम रोकने के लिए हमें अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकारनी होगी। क्योंकि ये हम सभी का नैतिक दायित्व है। निश्चित तौर पर बाल श्रम को रोकने के लिए अब एक सामाजिक क्रांति की जरूरत प्रतीत होती है। जिसमें सरकार के साथ समाज का अहम योगदान होना चाहिए तभी बचपन और युवावस्था का सही तालमेल बैठाने में हम सक्षम हो पाएंगे और देश के भविष्य को सुरक्षित रख पाएंगे।

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