साल 2011 में भारत ने एक ऐसा जनांदोलन देखा जिसने करोड़ों भारतीयों के मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक नई चेतना पैदा की। इस आंदोलन का नेतृत्व किया अन्ना हज़ारे ने — एक पूर्व सैनिक, समाजसेवी और गांधीवादी विचारधारा के अनुयायी। यह आंदोलन भारत को एक मज़बूत लोकपाल कानून देने की माँग को लेकर शुरू हुआ था।
भ्रष्टाचार उस समय भारत के लगभग हर क्षेत्र में फैला हुआ था — चाहे वह सरकारी विभाग हो, शिक्षा, स्वास्थ्य, या उद्योग। ऐसे में अन्ना हज़ारे ने दिल्ली के जंतर–मंतर पर अनशन की घोषणा की और देशवासियों से अपील की कि वे इस लड़ाई में उनका साथ दें। देखते ही देखते दिल्ली के जंतर–मंतर पर हज़ारों लोग जुट गए और देश के हर कोने से लाखों लोगों ने समर्थन जताया।
अन्ना आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत थी उसका नेतृत्व और जनता की भागीदारी। सोशल मीडिया और न्यूज चैनलों के माध्यम से यह आंदोलन घर–घर तक पहुंचा। विशेष रूप से युवा वर्ग ने इसमें बढ़–चढ़ कर हिस्सा लिया। लोग भ्रष्टाचार से तंग आ चुके थे और उन्हें एक ऐसा नेतृत्व चाहिए था जो निस्वार्थ हो और जनहित की बात करे।
इस आंदोलन के तीन मुख्य चेहरे थे — अन्ना हज़ारे, अरविंद केजरीवाल, और किरण बेदी। इन्होंने सरकार से एक स्वतंत्र और शक्तिशाली लोकपाल की स्थापना की माँग की, जो बड़े अधिकारियों और मंत्रियों पर भी जांच कर सके।
सरकार पर दबाव बढ़ता गया और अंततः संसद में लोकपाल बिल पर चर्चा शुरू हुई। हालांकि बिल में पूरी तरह अन्ना की मांगें नहीं मानी गईं, लेकिन जनता का भरोसा जीतने के लिए सरकार ने कुछ बदलावों के साथ इसे पारित किया।
यह आंदोलन भारतीय लोकतंत्र में एक मील का पत्थर था। इससे यह सिद्ध हुआ कि यदि जनता एकजुट हो जाए, तो किसी भी सरकार को झुकाया जा सकता है। अन्ना हज़ारे का सत्याग्रह गांधीजी की परंपरा में एक नया अध्याय था।
इस आंदोलन के बाद अरविंद केजरीवाल ने राजनीति में प्रवेश किया और आम आदमी पार्टी का गठन किया। भले ही अन्ना ने राजनीति से दूरी बनाए रखी, लेकिन उनका आंदोलन एक नए राजनीतिक विमर्श की नींव बन गया।
अन्ना आंदोलन ने आम जनता को यह विश्वास दिलाया कि वे बदलाव ला सकते हैं, और देश को एक साफ–सुथरी व्यवस्था की ओर ले जा सकते हैं।