भारत के सामाजिक ढांचे में जातिगत असमानता और पिछड़ेपन की समस्या लंबे समय से रही है। इसी पृष्ठभूमि में 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने एक आयोग का गठन किया — जिसे मंडल आयोग कहा गया। इस आयोग का उद्देश्य था यह जानना कि भारत में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग कौन हैं और उनके लिए क्या विशेष प्रावधान किए जा सकते हैं।
इस आयोग की अध्यक्षता बिपिन चंद्र मंडल ने की। आयोग ने लगभग 11,000 गांवों का सर्वेक्षण कर अपनी रिपोर्ट तैयार की, जिसे 1980 में सरकार को सौंप दिया गया। रिपोर्ट में अनुशंसा की गई कि अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए 27% आरक्षण सुनिश्चित किया जाए, ताकि उन्हें नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में बराबरी का मौका मिल सके।
हालांकि, यह रिपोर्ट कई वर्षों तक ठंडे बस्ते में रही। लेकिन 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया। यही निर्णय उस समय भारत की राजनीति और समाज को झकझोर देने वाला बन गया।
विरोध की शुरुआत
मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होते ही देशभर के शहरी क्षेत्रों में रहने वाले सवर्ण युवाओं में रोष फैल गया। विशेषकर वे युवा जो UPSC, बैंकिंग, मेडिकल या इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे, उन्हें लगा कि यह आरक्षण उनके अवसरों को सीमित कर देगा।
दिल्ली विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, और कई अन्य शहरों में भीषण प्रदर्शन शुरू हो गए। छात्रों ने रेल रोकी, संस्थान बंद करवाए और विरोध मार्च निकाले।
इस आंदोलन का सबसे मर्मांतक दृश्य था जब राजीव गोस्वामी नामक एक छात्र ने दिल्ली में आत्मदाह करने की कोशिश की। यह घटना पूरे देश को झकझोर गई और कई अन्य छात्रों ने भी ऐसी ही कोशिशें कीं।
राजनीतिक असर
मंडल आयोग लागू करने के फैसले ने वी. पी. सिंह की सरकार को अलोकप्रिय बना दिया और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ गई। अंततः उनकी सरकार गिर गई, लेकिन मंडल आयोग का निर्णय वापस नहीं लिया गया। इसके बाद भारतीय राजनीति में जातीय समीकरण निर्णायक हो गए।
सकारात्मक पहलू
हालांकि विरोध हुआ, लेकिन मंडल आयोग के लागू होने से पिछड़े वर्गों को प्रशासन, शिक्षा और नौकरियों में नई पहचान मिली। उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने की दिशा में यह एक बड़ा कदम माना गया।