भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन यहां की राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों की एक बड़ी चुनौती है — वंशवाद या नेपोटिज्म। यह वह स्थिति है जब एक राजनीतिक नेता के परिवार के सदस्य सत्ता में आते हैं, सिर्फ उनके नाम और पहचान के कारण, न कि योग्यता या अनुभव के आधार पर।
वंशवाद की शुरुआत
भारतीय राजनीति में वंशवाद की शुरुआत स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही देखी गई। नेहरू–गांधी परिवार को इसकी प्रमुख मिसाल माना जाता है। जवाहरलाल नेहरू के बाद उनकी बेटी इंदिरा गांधी, फिर राजीव गांधी, सोनिया गांधी और अब राहुल गांधी तक सत्ता के केंद्र में परिवार की पकड़ बनी रही।
राजनीति बनाम परिवार
आज भारत में लगभग हर प्रमुख दल में किसी न किसी रूप में वंशवाद मौजूद है:
- समाजवादी पार्टी – मुलायम सिंह यादव से अखिलेश यादव तक
- राष्ट्रीय जनता दल (RJD) – लालू प्रसाद यादव से तेजस्वी यादव तक
- शिवसेना, एनसीपी, टीएमसी, डीएमके जैसे कई क्षेत्रीय दलों में भी यही चलन
यह साफ़ दिखाता है कि राजनीति एक पेशा नहीं बल्कि पारिवारिक संपत्ति की तरह देखी जा रही है।
वंशवाद के खतरे
- लोकतंत्र कमजोर होता है – राजनीति में खुली प्रतियोगिता और योग्यता की जगह पहचान और वंश को महत्व मिलने लगता है।
- कुशल नेतृत्व की कमी – कई बार परिवार के सदस्य सक्षम नहीं होते, लेकिन सत्ता मिलती है सिर्फ नाम के आधार पर।
- नवीन विचारों की कमी – जब एक ही परिवार की सोच हावी रहती है, तब विविधता और नवाचार की गुंजाइश कम हो जाती है।
- युवा प्रतिभाओं के लिए अवसर नहीं – जो युवा मेहनत से राजनीति में आना चाहते हैं, उन्हें पीछे धकेल दिया जाता है।
जनता की भूमिका
जनता अक्सर इन नेताओं को सिर्फ उनके परिवार की पहचान पर वोट देती है। यह एक भावनात्मक मतदान होता है, जो अक्सर विकास और नीतियों के मुद्दों से हटकर होता है। जब तक मतदाता इस प्रवृत्ति को स्वीकार करते रहेंगे, तब तक वंशवाद खत्म नहीं होगा।
क्या सिर्फ वंशवाद ही समस्या है?
यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि वंश में आना गलत नहीं है, लेकिन जब किसी को सिर्फ वंश के आधार पर बिना काबिलियत या अनुभव के जिम्मेदार पद दिए जाएं, तब यह लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाता है। कुछ नेता जैसे अखिलेश यादव या ओमप्रकाश चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला ने खुद को साबित किया है, लेकिन यह अपवाद हैं।
समाधान
- राजनीतिक दलों को आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहिए।
- उम्मीदवारों का चयन योग्यता, काम और जनसमर्थन के आधार पर होना चाहिए, न कि उपनाम या रिश्तेदारी पर।
जनता को भी भावनात्मक वोटिंग की बजाय सोच–समझकर मतदान करना चाहिए।